अथालंद
अथालंद विधि दो प्रकार की है, गच्छविनिर्गत गच्छप्रतिबद्ध । परीषह, उपसर्ग को जीतने में तपाव्यक्त बलवीर्य परन्तु परिहार विधि को धारण करने में असमर्थ साधु इस विधि को धारण करते हैं । तीस वर्ष पर्यन्त भोग भोगकर 19 वर्ष तक मुनि अवस्था में रहने के बाद ही अथालंद विधि धारण करने के योग्य होते हैं। ज्ञान की अपेक्षा नौ या दस पूर्वो के ज्ञाता होते हैं। लेश्या की अपेक्षा पद्म और शुक्ल लेश्या वाले होते हैं। ध्यान की अपेक्षा धर्म ध्यानी होते हैं । चारित्र की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो चारित्र होते हैं। सब तीर्थंकरों के तीर्थों में होते हैं। विक्रिया चारण और क्षीरस्रावी आदि ऋद्धियों के धारी होते हैं, परन्तु वैराग्य के कारण उनका सेवन नहीं करते। गच्छविनिर्गत अर्थात् गच्छ से निकलकर उससे पृथक रहते हुए अथालंद विधि करने वाले मुनियों का यह स्वरूप है। गच्छ प्रतिबद्ध अथालंद विधि में गच्छ से निकलकर बाहर एक योजन और एक कोश पर ये मुनि विहार और निवास करते हैं। शक्तिमान आचार्य स्वयं अपने क्षेत्र से बाहर जाकर उनको अर्थ परक अध्ययन कराते हैं अथवा समर्थ होने पर अथालंद विधि वाले साधु स्वयं भी आचार्य के पास जाकर अध्ययन करते हैं। शेष विधि पूर्ववत् जानना चाहिए। इस प्रकार अथालंद विधि के दोनों भेदों का कथन किया ।