जैसे कि बौद्धों के क्षणिक एकान्त पक्ष में चित्त क्षण प्रतिसमय नश्वर होता है वैसे ही पर्याय के नाश के पहले आंशिक रूप आत्मा के • नाश की रक्षा के लिए अक्षमता, अत्राणभय (अरक्षाभय ) कहलाता है।
जो संयत मुनि इन्द्रिय के इष्ट विषयों के प्रति निरुत्सुक है जो गीत, नृत्य, वादित्र आदि से रहित शून्य घर, मन्दिर, वृक्ष की कोटर, शिलातल आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन हैं। पहले देखे हुए, सुने हुए या …