जीवों को पीड़ा पहुँचाकर उत्पन्न की गई जो आहार आदि सामग्री है वह अध:कर्म कहलाती है। यदि साधु अपने लिए स्वयं आहार आदि बनाए, दूसरे से बनवाए या बनाने वाले का समर्थन करे और ऐसी आहार आदि सामग्री ग्रहण करे …
अपूर्व कृष्टियों के द्रव्य को भी पूर्व कृष्टियों की आदि कृष्टि के समान करने के अर्थ जो द्रव्य दिया सो अधस्तनकृष्टि द्रव्य है ।
जो जीव के अनुजीवी गुणों का घात नहीं करते, पर बाह्य शरीरादि से संबंधित हैं वे अघातिया कर्म कहलाते हैं। आयु नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया-कर्म हैं।