‘यह धर्मास्तिकाय है’ ऐसा विकल्प जब ज्ञेय तत्त्व के विचारकाल में करता है उस समय वह शुद्धात्मा का स्वरूप भूल जाता है (क्योंकि उपयोग में एक समय में एक ही विकल्प रह सकता है) इस विकल्प के किए जाने पर …
साधक के दोषों को सुनकर उन्हें अपने भीतर ही रखना और अन्य किसी से नहीं कहना यह आचार्य का अपरिस्रावी नामक गुण कहलाता है।
जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाते वह अपर्याप्त नामकर्म है।