अभ्यंतर इन्द्रिय
रचना का नाम निवृत्ति है वह दो प्रकार की होती है- बाह्य और अंतरंग। आभ्यंतर उत्सेधांगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण और अप्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकाररूप से अवस्थित शुद्धात्म प्रदेशों की रचना को अभ्यंतर निवृत्ति कहते हैं और इन्द्रिय नाम वाले इन्हीं आत्म प्रदेशों में प्रतिनियत आकाश रूप और नामकर्म के उदय से विशेष अवस्था को प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है उसे बाह्य निवृत्ति कहते हैं। अभ्यंतर कारण मन वचन काय की वर्गणाओं के निमित्त से होने वाला आत्म प्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्ययोग अन्तःप्रविष्ट होने से अभ्यन्तर अनात्मभूत हेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग आत्मा की विशुद्धि अभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है।