अद्वैत दर्शन
जगत् में एक ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है ऐसा ब्रह्माद्वैत मानने से प्रत्यक्ष रूप से विवेचन कर्ता कर्म आदि के भेद तथा शुभाशुभ कर्म उनके सुखदुःख रूप फल, सुख दुःख के आश्रयभूत यह लोक व अपरलोक, विद्या व अविद्या तथा बंध व मोक्ष इन सब प्रकार के द्वैतों का अभाव ठहरे। बौद्ध दर्शन का प्रतिभासाद्वैत तो किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं किया जा सकता। यदि ज्ञेयभूत वस्तुओं को प्रतिभास में गर्मित करने के लिए हेतु देते हो तो हेतु और साध्यरूपद्वैत की स्वीकृति करनी पड़ती है और आगम प्रमाण से मानते हो तो वचनमात्र से ही द्वैतता आ जाती है। दूसरी बात यह भी तो है कि जैसे हेतु बिना अहेतु शब्द की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही द्वैत के बिना अद्वैत की उत्पत्ति कैसे हो । अतः दोनों को सर्वथा निरपेक्ष न मानकर परस्पर सापेक्ष मानना चाहिये। एकत्व के बिना पृथक्त्व और पृथक्त्व के बिना एकत्व प्रमाणता को प्राप्त नहीं होते। जिस प्रकार हेतु अन्वय और व्यतिरेक दोनों रूपों को प्राप्त होकर ही साध्य की सिद्धि करता है। इसी प्रकार एकत्व और पृथक्त्व दोनों प्रकार से पदार्थ की सिद्धि होती है। सत् सामान्य की अपेक्षा सर्व द्रव्य एक है और स्व स्व लक्षण और गुणों की अपेक्षा को धारण करने के कारण सब पृथक-पृथक हैं। प्रमाण गोचर होने से द्वैत और अद्वैत दोनों सत्स्वरूप उपचार नही, इसलिए मुख्य गौण विवक्षा से इन दोनों में अविरोध है।