अतिचार
करने योग्य कार्य के न करने पर और त्याग करने योग्य पदार्थ के त्याग न करने पर जो पाप होता है, उसे अतिचार कहते है। अतिक्रम भी इसी का नाम है। सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंषकवेद इनका त्याग न करना अतिचार है। विषयों में वर्तन करने का नाम अतिचार है। अतिचार के देशत्याग और सर्वत्याग ऐसे दो भेद हैं। मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना और समरम्भ, समारम्भ, आरम्भ ऐसे नौ भेदों में से किसी एक के द्वारा सम्यग्दर्शन आदि के दोष उत्पन्न होना देशातिचार है और सर्वप्रकार से अतिचार होना सर्वातिचार है। डण्डा, चाबुक, बँत आदि से प्राणियों को मारना बध है यहाँ बध का अर्थ प्राणों का वियोग करना नहीं है क्योंकि अतिचार के पहले ही हिंसा का त्याग कर दिया जाता है। अर्थात् प्राण व्यपरोपणा अतिचार नहीं है, उससे तो व्रत का नाश होता है। मन की शुद्धि में क्षति होना अतिचार है। शील व व्रतों की मर्यादा का भंग होना व्यतिक्रम है। विषयों में वर्तन करना अतिचार है और विषयों में अत्यन्तासक्ति होना अनाचार है। अतिचार प्रमाद और संमोह के कारण होता है।