अष्टांग निमित्तज्ञान
प्रत्येक कारण और एकार्थवाची नाम है जो पूरता है अर्थात् उत्पन्न करता है इस व्युत्पत्ति के कारण पूर्व निमित्त कारण ये एकार्थवाची नाम है। कार्यकाल में क्षण पहले से रहते हुए कार्यउत्पत्ति में सहायता करने वाले अर्थ को निमित्त काल कहते हैं। नभ (अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिन्ह और स्वप्न) इन आठ महानिमित्तों में कुशलता अष्टांग निमित्तज्ञता है। सूर्य, चंद्र और ग्रह इत्यादि के उदय से व अस्तमान आदि को देखकर जो क्षणिता और सुख दुःख (जन्म-मरण ) का जानना है और नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है। पृथ्वी के धन, सुषिर (पीलापन), स्निग्ध रुक्षता प्रभृति गुणों को विचारकर जो ताँबा, लोहा, स्वर्ण और चाँदी आदि धातुओं की हानि, वृद्धि को तथा दिशा – विदिशाओं के अन्तराल में स्थित चतुरंगनल को देखकर जो जय-पराजय को जानता है उसे भौम निमित्तज्ञान कहते हैं। मनुष्य और तिर्यंचों के निम्न और उन्नत अंगोपांगों के दर्शन व स्पर्श से बात, पित्त, कफ रूप तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात धातुओं को देखकर तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख या मरणादि को जानना यह अंगनिमित्त नाम से प्रसिद्ध है। मनुष्य और तिर्यंचों के विचित्र शब्दों को सुनकर कालत्रय में होने वाले सुख दुःख को जानना यह स्वर निमित्तज्ञान है। सिर, मुख और कन्धे आदि पर तिल एवं मशे आदि को देखकर तीनों काल के सुखादिक को जानना यह व्यंजन निमित्तज्ञान है। हाथ, पाँव के नीचे की रेखाएँ, तिल आदि देखकर त्रिकाल सम्बन्धी सुख दुःखादि को जानना सो लक्षण निमित्तज्ञान है । देव-दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादिक तथा प्रासाद, नगर और देशादिक चिन्हों को देखकर निमित्त ये त्रिकालभावी शुभ अशुभ मरण विविध प्रकार के द्रव्य और सुख दुःख को जानना, यह चिन्ह या छिन्न निमित्तज्ञान है। वात पित्तादि दोषों से रहित व्यक्ति सोते हुए रात्रि के पश्चिम भाग में अपने मुखकमल में प्रविष्ट चन्द्र सूर्यादि रूप शुभ स्वप्न को और घृत व तेल को मालिश आदि गद्रभ और ऊँट आदि पर चढ़ना तथा परदेश गमन आदि रूप अशुभ स्वप्न देखता है इसके फलस्वरूप तीन काल में होने वाले दुःख–सुखादि को बतलाना यह स्वप्न निमित्तज्ञान है। इसके चिन्ह और माला दो भेद हैं। इनमें से स्वप्न में हाथी, सिंहादिक के दर्शनमात्र आदि को चिन्हस्वप्न और पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाले स्वप्न को माला स्वप्न कहते हैं। 1