अधःप्रवृत्तकरण
प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाले जीव के अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण- ये तीन विशिष्ट निर्जरा के साघनभूत विशुद्ध परिणाम होते हैं। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाला भव्य जीव आयु कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति को अंतः कोड़ा कोड़ी प्रमाण करके अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में प्रवेश करता है। यह करण (परिणाम) पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुआ इसलिए इसका एक सार्थक नाम अधःप्रवृत्तकरण भी है। इसके प्रथम समय में अल्प जघन्य विशुद्धि होती है, उसके बाद अनन्तगुणी विशुद्धि की वृद्धि अन्तर्मुहूर्त तक होती रहती है। इस करण को प्राप्त करने वाले विभिन्न जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण परिणामों के विकल्प हैं, वे कोई सम हैं और कोई विषम भी हैं। अधः प्रवृत्तकरण के काल में ऊपर के समीपवर्ती जीवों के परिणाम नीचे के समीपवर्ती जीवों के परिणाम के सदृश अर्थात् संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा समान होते हैं। इसलिए इसका अधःप्रवृत्तकरण नाम सार्थक है। अधः प्रवृत्तकरण में स्थितिकाण्डक घात, अनुभाग काण्डक घात, गुण श्रेणी निर्जरा और गुणसंक्रमण नहीं होता। केवल अनन्तगुणी विशुद्धि की वृद्धि के द्वारा जीव प्रतिसमय विशुद्धि को प्राप्त होता है । अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानीय अर्थात् निंब व कांजीर रूप अनुभाग को प्रति समय अनन्तगुणित हीन बनाता है और प्रशस्त कर्मों के गुड़ खांड आदि चतुः स्थानीय अनुभाग को प्रतिसमय अनन्तगुणित बांधता है।