अपकर्ष
जीव जिस आयु को भोग रहा होता है वह भुज्यमान आयु कहलाती है। भुज्यमान आयु घटते-घटते आगामी परभव की आयु बंधती है इसलिए इसे अपकर्ष कहते हैं। भुज्यमान आयु का 2/3 भाग बीत जाने पर आयु बन्ध के योग्य प्रथम अवसर आता है। यदि इस अवसर पर आयु न बंधे तो शेष आयु का पुनः 2/3 भाग बीत जाने पर दूसरा अवसर आता है। इस प्रकार आयु के अन्तपर्यन्त आठ अवसर आते हैं। इन्हें आठ अपकर्ष कहते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रह जाता है उसका त्रिभाग शेष रहने पर आठवें अपकर्ष के प्राप्त होने तक आयु बंध के योग्य होते हैं परन्तु त्रिभाग शेष रहने पर आयु नियम से बंधती है ऐसा नहीं है उस समय जीव आयु बंध के योग्य होते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है। भोगभूमिजों तथा देव नारकियों की अपेक्षा भी आठ अपकर्ष बनते हैं। देव व नारकी के तो छह महीना आयु शेष रहने र तथा भोगभूमियाँ के नव महीना आयु का अवशेष रहने पर त्रिभाग रूप आठ अपकर्ष में आयु बंध होता है। यदि कदाचित् किसी भी अपकर्ष में आयु न बंधे तो कोई आचार्य के अनुसार तो आवली का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण तथा कोई आचार्य के अनुसार एक समय कम मुहूर्त प्रमाण आयु का अवशेष रहने पर आगामी भव की आयु का बंध होता है ।