अन्तराय कर्म
जिस कर्म के उदय से दानादि कार्य में बाधा उत्पन्न होती है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय – ये पाँच अन्तराय कर्म के भेद हैं । जिसके उदय से देने की इच्छा करता हुआ नहीं देता, प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ प्राप्त नहीं करता, भोगने की इच्छा करता हुआ नहीं भोगता, उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता। अन्तराय कर्म के उदय से जीव चाहै सो न होय । बहुरि तिसि का क्षयोपशमतैं किंचित मात्र चाह भी होय । दानादि में विघ्न डालना अन्तराय कर्म का आस्रव है। उसका विस्तार इस प्रकार है- ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गंध, माल, आच्छालन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य, परिभोगादि में विघ्न करना, विभव संमृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग न करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवता के लिए निवेदित या अनिवेदित द्रव्य का ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म विच्छेद करना, कुशल चारित्र वाले तपस्वी गुरू और चैत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित कृपण दीन अनाथ को दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र आश्रय आदि में विघ्न करना, परनिरोध बंधन, गुह्यअंगच्छेद, नाक ओंठ आदि का काट देना, प्राणिबध आदि अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं।