अनेकांत
अनेकांत
वस्तु में एक ही समय अनेकों क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूप में-भली प्रकार प्रतीति के विषय बन रहे हैं। जो वस्तु किसी एक दृष्टि से नित्य प्रतीत होती है वही किसी अन्य दृष्टि से अनित्य प्रतीत होती है, जैसे व्यक्ति वह का वह रहते हुए भी बालक से बूढ़ा और गँवार से साहब बन जाता है। यद्यपि विरोधी धर्मों का एक ही आधार में रहना साधारण जनों को स्वीकार नहीं हो सकता पर विशेष विचारक जन दृष्टि भेद की अपेक्षाओं को मुख्य गौण करके विरोध में भी अविरोध का विचित्र दर्शन कर सकते हैं। इसी विषय का इस अधिकार में कथन किया गया है।
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