अभाव
जहाँ पहले होकर वही अवस्था बाद में न हो वहाँ उसका अभाव कहा जाता है। वस्तु का कभी सर्वथा अभाव नहीं होता। अतः भावान्तर रूप होना ही अभाव माना जाता है। जैसे किसी स्थान में पहले घड़ा रखा था और फिर वहाँ से वह हटा लिया गया तो वहाँ के घड़े का अभाव हो गया। अभाव चार प्रकार का होता है- प्राग्- अभाव, प्रध्वंस – अभाव, अन्योन्य अभाव और अत्यन्त अभाव। द्रव्य की वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में जो अभाव है उसे प्राग्-अभाव कहते हैं। जैसे- वर्तमान दही रूप पर्याय का पूर्व की दूध रूप पर्याय में जो अभाव है वह प्राग्अभाव है। अथवा कार्य का कारण में अभाव होना अर्थात कार्य अपनी उत्पत्ति से पहले नहीं होना, यही प्राग्-अभाव कहलाता है जैसे- दूध बनता है पर दही बनने से पहले दूध में दही का जो अभाव है वह प्राग अभाव है। आगामी पर्याय में वर्तमान पर्याय का जो अभाव है उसे प्रध्वंस अभाव कहते हैं। जैसेआगामी घी- पर्याय में वर्तमान की दही पर्याय का जो अभाव है वह प्रध्वंस – अभाव है अथवा कार्य का स्वरूप लाभ के पश्चात् जो अभाव होता है उसे प्रध्वंस अभाव कहते हैं। जैसे- दही से घी बनता है पर घी बनने के उपरान्त उसमें दही पर्याय का जो अभाव है उसे प्रध्वंस अभाव कहते हैं। एक द्रव्य की एक पर्याय का उसकी दूसरी पर्याय में जो अभाव है उसे अन्योन्य – अभाव कहते हैं। जैसे- पुद्गल की घड़े रूप पर्याय का पुद्गल की ही वस्त्र रूप पर्याय में जो अभाव है वह अन्योन्य-अभाव है अर्थात् घड़ा, वस्त्र नहीं है और वस्त्र घड़ा नहीं है जबकि दोनों पुद्गल रूप हैं। एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का जो अभाव है वह अत्यन्ताभाव है।