अनऋद्धि प्राप्त आर्य
ऋद्धि रहित आर्य पाँच प्रकार के हैं- क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । काशी कौशल आदि उत्तम देशों में उत्पन्न हुओं को क्षेत्रार्य कहते हैं । इक्ष्वाकु जाति, भोज आदि उत्तम कुलों में उत्पन्न हुओं को जात्यार्य कहते है। जात्यार्य दो प्रकार के है उपदेश और अनुपदेश की अपेक्षा बाह्य उद्देश्य के बिना आत्मप्रसाद मात्र से चारित्रमोह के उपशम अथवा क्षय होने से चारित्र परिणाम को प्राप्त होते है ऐसे उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीव अधिगत चारित्रार्य हैं। और अंतरंग चारित्रमोह के क्षयोपशम का सद्भाव होने पर बाह्य उपदेश के निमित्त से विरति परिणाम को प्राप्त अनाधिगम चारित्रार्य हैं। कर्मार्य तीन प्रकार के है- सावद्यकर्मार्य, अल्पसावद्य- कर्मार्य और असावद्यकर्मार्य। असि, मसि आदि छः सावद्य करने वाले सावद्यकर्मार्य हैं, क्योंकि वे अविरति प्रधानी हैं । विरति अविरति दोनों रूप से परिणत होने के कारण श्रावक और श्राविकायें अल्प सावद्यकर्मार्य हैं। कर्म क्षय को उद्यत विरति रूप परिणत होने के कारण व्रत धारी संयत असावद्य कर्मार्य है। आज्ञा, मार्ग आदि दस भेदों की अपेक्षा दर्शनार्य दस प्रकार के हैं।