अदर्शन परीषह जय
परम वैराग्य की भावना से मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थों के रहस्य को जान लिया है, मैं वीतराग धर्म का उपासक हूँ चिरकाल से मैं दीक्षित हूँ तो भी अभी तक ज्ञान का अतिशय उत्पन्न नहीं हुआ। महातप, उपवास आदि का अनुष्ठान करने वाले के प्रतिहार्य आदि विशेष उत्पन्न होते हैं, यह प्रलापमात्र है । ऐसी दीक्षा लेना व्यर्थ है व्रतों का पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातों का दर्शन विशुद्धि के योग से मन में विचार भी नहीं लाने वाले के अदर्शन परीषह जय जानना चाहिए।