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जिनका बह्म अर्थात् चारित्र शान्त है, वह अघोर गुण ब्रह्मचर्य कहलाते हैं, ऐसे मुनि शान्ती और पुष्टी के कारण होते हैं। इसलिए उनके तपश्चरण के माध्यम से ईति-भीति, युद्ध और दुर्भिक्षादि शान्त हो जाते है।
प्रारम्भ की छह प्रतिमाओं का पालन करते हुऐ जो श्रावक कामसेवन का सर्वदा त्याग कर देता है और स्त्रीकथा आदि से भी निवृत हो जाता है वह सातवीं प्रतिमा रूप गुण का धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ।
मन वचन काय और कृतकारित अनुमोदना से जो मुनि स्त्री संसर्ग का त्याग करता है उसके रति ब्रह्मचर्य महाव्रत है। जो वृद्ध बाल और युवा स्त्री को देखकर उनको माता, पुत्री व बहिन के समान समझ कर स्त्री सम्बन्धी विचारों …
जो पाप के भय से न तो स्वयं पर स्त्री की आकांक्षा करता है और न दूसरों को प्रेरणा देता है वह पर स्त्री त्याग रूप स्वदार संतोष नाम का अणुव्रत है इसे ही ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं ।