षट्काल
काल नाम समय का है या समय को काल कहते हैं। वह काल दो प्रकार का है- उत्सर्पिणी और अवसप्रिणी। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छह-छह भेद कहे गए हैं- सुषमा- सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमासुषमा, दुषमा और अतिदुषमा या दुषमादुषमा । यही छह काल कहलाते हैं। समा काल के विभाग को कहते हैं तथा सु और दुः उपसर्ग क्रम से अच्छे बुरे अर्थ में आते हैं सु और दुः उपसर्ग को पृथक- समा के साथ जोड़ देने पर और व्याकरण के नियमानुसार स को ष कर देने से सुषमा और दुषमा शब्दों की सिद्धि होती है, जिनके अर्थ क्रम से अच्छा काल और बुरा काल होता है। इस प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के उपरोक्त छहों भेद सार्थकवाद वाले हैं। (देखिये वह – वह नाम) दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषणकाल, आत्मसंस्कारकाल, सल्लेखनाकाल और उत्तमार्थकाल के भेद से ये काल के छह भेद हैं। जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके आत्म- आराधना के लिए बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है। दीक्षा के उपरान्त रत्नत्रय तथा परमात्म तत्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र एवं चतुर्विध आराधना के परिज्ञान के लिए आचार-आराधना आदि ग्रन्थ की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। शिक्षा के पश्चात मोक्षमार्ग में स्थित रहकर जिज्ञासु भव्य प्राणीगणों का कारणानुयोग में कथित अनुष्ठान पूर्व शिष्यगण परमात्म उपदेश के द्वारा पोषण करता है वह गणपोषण काल है। गणपोषण के उपरान्त गण अर्थात् अपने संघ को छोड़कर जब निज परमात्म में शुद्ध संस्कार का इच्छुक होकर परसंघ में जाता है वह आत्म संस्कार काल है। भावना से परमात्मा पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों को घटाने रूप भाव सल्लेखना एवं कायक्लेशादि अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना को अंगीकार करता है वह सल्लेखना काल है। सल्लेखना ग्रहण करने के उपरान्त चतुर्विध आराधना की भावना रूप समाधि को धारण करता है वह उत्तमार्थ काल है।