श्वेतांबर
दिगम्बर मान्यता के अनुसार भगवान वीर के पश्चात् मूल संघ दिगम्बर ही था। पीछे कुछ शिथिलाचारी साधुओं ने श्वेतांबर संघ की स्थापना की। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार जिनकल्प व स्थविर कल्प दोनों ही संघ विद्यमान थे। जम्बू स्वामी के पश्चात् काल प्रभाव से जिनकल्प का विच्छेद हो गया और स्थविर कल्प ही शेष रह गया। पीछे शिवभूति नामक एक साधु जिनकल्प के पुरावर्तन के उद्देश्य से नग्न हो गया। उसके द्वारा ही दिगम्बर मत का प्रचार हुआ। श्वेताम्बर में से ढूंढिया मत की उत्पत्ति के विषय में दोनों ही सम्प्रदाय सहमत हैं। आचार्य जिनचन्द्र ने श्वेताम्बर मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है । वस्त्रधारी व अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगवान वीर के गर्भ का संचार हुआ । अर्थात् पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ में चले गये। मुनिजन किसी के घर भी प्रासुक भोजन कर सकते हैं। श्वेताम्बर साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझ में मांस भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करने में दोष नहीं है। विक्रम संवत् 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघ के प्रवर्तक भद्रबाहुगणी जी एक निमित्तज्ञानी थे । (पंचम श्रुतकेवली से भिन्न थे) उनके शिष्य शान्त्याचार्य तथा उनके भी शिष्य जिनचन्द्र थे। उज्जैनी नगरी में 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के सम्बन्ध में आचार्य भद्रबाहु की भविष्यवाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघ को लेकर वहाँ से विहार कर गये । भद्रबाहु के शिष्य शान्तिनाथ के आचार्य सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में आये, परन्तु वहाँ भी भारी दुष्काल पड़ा। परिस्थितिवश सिंहवृत्ति छोड़कर साधुओं ने वस्त्र, पात्र आदि धारण कर लिये और वसतिका में से भोजन मांग कर लाने लगे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर जब शान्त्याचार्य ने पुनः उन्हें शुद्ध चारित्र पालने का आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचन्द्र ने उन्हें जान से मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया । शान्त्याचार्य मरकर व्यंतर हुआ और संघ पर उपद्रव करने लगा, जिसे शांत करने के लिए जिनचन्द्र ने उसकी एक कुलदेवता के रूप में पूजा प्रचलित कर दी, जो आज तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चली आ रही है ।