प्रासुक
जिसमें से एकेन्द्रिय आदि जीव निकल जाते हैं वह प्रासुक द्रव्य है। जल आदि को प्रक्रिया विशेष के द्वारा हरितकायमय सूक्ष्म जीवों के संचार से अगोचर अथवा रहित कर लेना ही प्रासुक करना कहलाता है। सूखी हुई, पकी हुई, गर्म की हुई, खटाई व नमक आदि से निर्मित तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि से छिन्न-भिन्न की गई वस्तुओं को प्रासुक कहा जाता है छना हुआ जल दो घड़ी अर्थात् अड़तालीस मिनट तक, हरड़ आदि से प्रासुक किया गया दो पहर या छह घंटे तक तथा उबाला हुआ जल 24 घंटे तक प्रासुक या पीने योग्य रहता है। पाषाण को फोड़कर निकला हुआ अर्थात् पर्वतीय झरनों का अथवा रहट द्वारा ताड़ित हुआ और वापियों का गरम-गरम ताजा जल भी प्रासुक माना गया है।मुनिजन वर्षा ऋतु में वर्षा योग धारण करते हैं। वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं। उस समय वृक्ष के पत्तो पर पड़ा हुआ वर्षा का जो जल मुनि के शरीर पड़ता है उससे उनको जलकायिक जीवों की विराधना का दोष नहीं लगता क्योंकि वह जल प्रासुक होता है। हरड़ आदि से प्रासुक किये हुए जल में हरड़ आदि इतनी मात्रा में मिलाना चाहिए जिससे उस जल का रूप, रंग, गंध और स्पर्श परिवर्तित हो जाए । अन्यथा वह प्रासुक नहीं माना जाता।