विशुद्धि
साता वेदनीय, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय आदि परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत परिणाम को विशुद्ध कहते हैं अथवा कषायों के विपाक की मन्दता को विशुद्धि कहते हैं। जीव के जो परिणाम बांधे गए अनुभाग सत्कर्म के घात के कारण हैं उन्हें विशुद्धिस्थान कहते हैं । अपर्याप्तक काल में सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि नहीं होती तथा दर्शनोपयोग के समय में अतिशय विशुद्धि व संक्लेश का अभाव होता है साकार उपयोग व जागृत समय में ही सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि व संक्लेश होते है ।