मोह
दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से जीव के जो कलुषित परिणाम होता है वह मोह है अथवा शुद्धात्म श्रद्धान रूप सम्यक्त्व के विनाशक दर्शन मोह को ही मोह कहते हैं। पदार्थ का अयथार्थग्रहण, तिर्यंच व मनुष्यों के प्रति करूणा का अभाव तथा विषयों की संगति ये सब मोह के चिन्ह हैं। चार प्रकार के श्रमणसंघ के प्रति वात्सल्य सम्बन्धी मोह प्रशस्त ही है उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त है।