मांस
प्राणियों के घात के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए मांस भक्षी को अनवरत रूप से हिंसा होता है। स्वयं मरे हुए बैल, भैंस आदि के मांस भक्षण में भी हिंसा होती है क्योंकि तदाश्रित अनन्तनिगोद जीवों की हिंसा पाई जाती है। कच्ची हो अथवा अग्नि पर पकी हुई हो अथवा अग्नि पर पक रही हो, ऐसी सभी मांस की पेशियों में उसी जाति के अनन्त निगोद जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए कच्ची या पकी हुई किसी प्रकार की मांस पेशी को खाना या छूने वाला उन करोंड़ों जीवों का घात करता है। चमड़े में रखे हुए जल, घी, तेल आदि चमड़े से आच्छादित अथवा सम्बन्ध रखने वाली हींग और स्वादचलित सम्पूर्ण भोजन आदि पदार्थों का खाना मांस त्याग व्रत में दोष है । यद्यपि मांस और अन्न दोनों ही प्राणी के अंग होने के नाते समान हैं। परन्तु फिर भी धार्मिक जनों के लिए मांस खाना योग्य नहीं है। जैसे कि स्त्रीपने की अपेक्षा समान होते हुए भी पत्नी ही भोग्य है, माता नहीं ।