मनःपर्ययज्ञान
दूसरे के मनोगत अर्थ को जानना मनःपर्ययज्ञान है। दूसरे के मानस को जानकर यह मनःपर्यय ज्ञान काल से विशेषित दूसरों की संज्ञा ( शब्द कलाप), स्मृति (अतीतकालगत दृष्ट, श्रुत व अनुभूत विषय) मति (अनागत कालगत विषय), चिन्ता ( वर्तमान कालगत विषय ) इन सबको तथा उनके जीवित – मरण, लाभ-अलाभ व सुख-दुख को तथा नगर, देश जनपद आदि के विनाश को तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष- दुर्भिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय और रोग आदि को भी प्रत्यक्ष जानता है। मनःपर्ययज्ञान दो प्रकार का है – ऋजुमति और विपुलमति । ऋजु का अर्थ निष्पन्न ( व्यक्त) और सरल (सीधा) है जो सरल मन वचन कायगत पदार्थ को जानता है वह ऋजुमति है। जो पदार्थ जिस प्रकार से स्थित है उसका उसी प्रकार से चिन्तवन करने वाला मन, उसको उसी प्रकार से बताने वाला वचन और उसको उसी प्रकार से अभिनय द्वारा दिखलाने वाला कार्य ऋजु है जो ऋजुमति ज्ञान है वह सरल मन वचन व काय के विषय भेद से तीन प्रकार का है – वह सरल मनोगत पदार्थ को जानता है सरल वचनगत पदार्थ को जानता है सरल कायगत पदार्थ को जानता है । द्रव्य की अपेक्षा ऋजुमति जघन्य से एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीर की तद्व्यतिरिक्त (अजघन्य व अनुत्कृष्ट) निर्जरा को जानता है और उत्कर्ष से एक समय सम्बन्धी चक्षुइन्द्रिय की निर्जरा को जानता है क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से गव्यूति पृथक्त्त्व अर्थात् आठ-नौ घन कोश प्रमाण क्षेत्र को और उत्कर्ष से योजन प्रथकत्व अर्थात् आठ-नौ योजन प्रमाण क्षेत्र के भीतर की बात को जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य से दो-तीन भवों को जानता है और उत्कर्ष से सात-आठ भवों को जानता है अर्थात् इस काल के भीतर जीवों की गति- अगति को जानता है भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यों में उसके योग्य असंख्यात पर्यायों को जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी मन से अचिन्तित, वचन से अनुक्त और शारीरिक चेष्टा से अविषयभूत अर्थ को नहीं जान पाता । जिसकी मति विपुल अर्थात् विस्तीर्ण है वह विपुलमति कहलाता है। यथार्थ, अयथार्थ और उभय तीनों प्रकार के मन, तीनों प्रकार के वचन और तीनों प्रकार के काय के अर्थ को जान लेना ही विपुलता है जो विपुलमति है वह छह प्रकार है वह सरल मनोगत पदार्थ को जानता है कुटिल मनोगत अर्थ को जानता है सरल वचनगत पदार्थ को जानता है कुटिल वचनगत पदार्थ को जानता है सरल कायगत पदार्थ को जानता है और कुटिल शरीरगत पदार्थ को जानता है यह वर्तमान जीव और अवर्तमान जीवों के अथवा व्यक्त मन वाले और व्यक्त मन वाले जीवों के सुखादि को जानता है विपुलमति मनःपर्यय अपने और पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मन से चिन्तित या अचिन्तित या अर्ध चिन्तित सभी प्रकार के चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुख, लाभ-अलाभ आदि को जानता है। द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य से एक समय रूप चक्षु इन्द्रिय की निर्जरा को तथा उत्कृष्ट से अन्तिम द्रव्य विकल्प को जानता है क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजन पृथक्त्व अर्थात् आठ-नौ घन योजन प्रमाण क्षेत्र को जानता है उत्कर्ष से मानुषोत्तर पर्वत के क्षेत्र को जानता है काल की अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को और उत्कर्ष से असंख्यात भवों को जानता है मुनि इस काल के भीतर जीवों की गति-आगति को जानता है भाव की अपेक्षा जो जो द्रव्य इसे ज्ञात हैं उस उसकी असंख्यात पर्यायों को जानता है। ऋजुमति व विपुलमति में विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा विशेषता है ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य क्षेत्र आदि की अपेक्षा विशुद्धतर है विपुलमति अप्रतिपाती है इसके स्वामी के प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है ऋजुमति प्रतिपाती है इसके स्वामी के कषाय के उदय से घटता हुआ चरित्र भी पाया जाता है। मनःपर्ययज्ञान प्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान वाले जीवों को भी होता है उनमें भी प्रवर्द्धमान चारित्र वालों के ही होता है (विपुलमति की अपेक्षा) उनमें भी सात ऋद्धियों में से किसी एक को प्राप्त होने वाले के ही होता है ऋद्धि प्राप्त में भी किन्ही के ही होता है सबको नहीं। ऋजुमति न विपुलमति दोनों मनःपर्ययज्ञान उपेक्षा संयमरूप संयमलब्धि होने पर ही होते हैं और वह भी विशुद्ध परिणामों में तथा वीतराग आत्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान व चरित्र की भावना सहित पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से रहित अप्रमत्तपने का नियम उत्पत्तिकाल में ही है बाद में प्रमत्त अवस्था में भी संभव है । ऋजुमति हीयमान चारित्र वालों के भी हो सकता है परन्तु विपुलमति विशिष्ट प्रकार के प्रवर्द्धमान चारित्रवालों के ही होता है ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् अचरम देहियों के भी सम्भव है परन्तु विपुलमति अप्रतिपाती है अर्थात् चरम शरीरी के ही सम्भव है। जैसे किसी ने किसी समय सरलमन से किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, स्पष्ट वाणी से कोई विचार व्यक्त किया और काय से भी उभयफल निष्पादमार्थ अंगोपांग आदि का सिकोड़ना, फैलाना आदि रूप स्पष्ट क्रिया की। कालान्तर में उन्हें भूल जाने के कारण पुनः उन्हीं का चिन्तवन व उच्चारण आदि करने में समर्थ न रहा। इस प्रकार के अर्थ को पूछने पर या बिना पूछे भी ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जान लेता है कि इसने इस प्रकार सोचा बोला था या किया था ।