प्रथमोपशम विधि
इन्हीं सब कर्मों की जब अन्तः कोटा कोटी स्थिति को बाँधता है तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्ति और सर्व विशुद्ध होता है। जिस समय सर्व कर्मों की संख्यात हजार सागरों से हीन अन्तः कोड़ा-कोड़ा सागरोपम प्रमाण स्थिति को स्थापित करता है। उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक घटाता है अर्थात् अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करके मिथ्यात्व कर्म के तीन भाग करता है। सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यकमिथ्यात्व | मिथ्यात्व के तीन भाग करने के पश्चात दर्शन मोहनीय कर्म को उपशमाता है। भावार्थ – सम्यक्त्व अभिमुख जीव पंचलब्धि को क्रम से प्राप्त करता हुआ उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करता है। क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि व करण लब्धि ये पाँच लब्धियों के नाम हैं। विचारने की पारिभाषिक शब्दकोश शक्ति विशेष का उत्पन्न होना क्षयोपशम लब्धि है। परिणामों में प्रति समय विशुद्धि की उसके कारण हुई परिणाम विशुद्धि के फलस्वरूप पूर्व कर्मों की स्थिति घटकर अन्तः कोड़ा-कोड़ी सागर मात्र रह जाती है और नवीन कर्म भी इससे अधिक स्थिति के नहीं बंध पाते यह प्रायोग्य लब्धि है। अन्त में उस सुने हुये उपदेश का भलीभांति निदिध्यासन करना करण लब्धि है। करण लब्धि के तारतम्यता लिये हुए तीन भाग होते है अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । तथा अधःकरण में परिणामों की विशुद्धि में प्रतिक्षण अनन्त गुणी वृद्धि होती है। अशुभ प्रक्रतियों का अनुभाग अनन्त गुणहीन और शुभ प्रकृतियों का अनुभाग अधिक बँधता है। स्थिति भी उत्तरोत्तर पल्योपम के असंख्यात भाग करि हीन-हीन बाँधती है। अपूर्वकरण में विशुद्धि प्रतिक्षण बहुत अधिक बृद्धिंगत होने लगती है। यहाँ पूर्ववत स्थिति का काण्डक घात भी होने लगता है और स्थिति बंधापसरण भी विशुद्धि में अत्यन्त वृद्धि हो जाने पर वह अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। यहाँ पहले से भी अधिक वेग से परिणाम वृद्धिमान होने है। यह तीनों ही करण जीव के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत विशुद्ध परिणामों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। इनके प्राप्त करने में कोई अधिक समय भी नहीं लगता। तीनों ही प्रकार के परिणाम अन्तर्मुहुर्त मात्र में पूरे हो जाते हैं। और तब अनिवृत्तिकरण काल के असंख्यात भाग आ जाने पर अन्तरकरण करता है। परिणामों की विशुद्धि के कारण सत्ता में स्थित कर्म प्रदेशों में से कुछ निषेकों का अपना स्थान छोड़कर अपकर्षण द्वारा ऊपर नीचे के निषेकों में मिल जाना ही अन्तरकरण है। इस अन्तरकरण के द्वारा निषेकों की ये अटूट पंक्ति टूटकर दो भागों में विभाजित हो निषेकों का अन्तर पड़ जाता है। तत्पश्चात् उन्हीं परिणामों के प्रभाव से मिथ्यात्व नामा कर्म तीन भागों में विभाजित हो जाता है— मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व। ये तीनों ही कोई स्वतन्त्र प्रकृतियाँ नहीं हैं बल्कि उसे एक प्रकृति में ही कुछ प्रदेशों का अनुभाग तो पूर्वोक्त ही रह जाता है, मिथ्यात्व कहते है। कुछ अनुभाग अनन्त गुणहीन हो जाता है उसे सम्यक् मिथ्यात्व कहते हैं। और कुछ का अनुभाग घटकर उससे अनन्तगुण हीन हो जाता है उसे सम्यक प्रकृति कहते हैं। तब इन तीनों ही भागों की अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिए ऐसी मूर्ति अवस्था हो जाती है कि वे न उदयावली में प्रवेश कर पाते हैं और न ही उनका उत्कर्षण अपकर्षण आदि हो सकता है। तब इतने काल मात्र के लिए उदयावली में से दर्शन मोह की तीनों ही प्रकृतियों का सर्वथा अभाव हो जाता है उसे ही उपशम करण कहते हैं। इसके होने पर जीव को उपशम सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है क्योंकि विरोधी कर्म का अभाव हो गया है। परन्तु अन्तर्मुहूर्त मात्र अवधि पूरी हो जाने पर वे कर्म पुनः सचेष्ट हो उठते हैं। और उदयावली में प्रवेश कर जाते हैं। तब वह जीव पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है अथवा यदि सम्यक मिथ्यात्व का उदय होता है तो मिश्र गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है या यदि सम्यक प्रकृति का उदय हो जाता है तो क्षयोपशम सम्यक को प्राप्त हो जाता है।