पर्याप्ति
आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्ति के छह भेद हैंआहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन। इन पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है क्योंकि जन्म से लेकर ही जीव के इनका अस्तित्व पाया जाता है परन्तु पूर्णता क्रम से होती हैं प्रत्येक पर्याप्ति के पूर्ण होने में एक-एक अन्तर्मुहूर्त लगाता है सम्मिलित रूप की सभी पर्याप्तियाँ एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होती है। पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से एकेन्द्रियादि जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों की पूर्णता की शक्ति से युक्त होते हैं लेकिन जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती उतने काल तक वे निर्वृत्यपर्याप्तक कहलाते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के छहों पर्याप्तियाँ होती है दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन पर्याप्त के बिना शेष पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं तथा एकेन्द्रिय जीव के भाषा और मन पर्याप्ति के बिना शेष चार पर्याप्तियाँ होती है। पर्याप्ति और प्राण में अन्तर है इन्द्रियादि रूप शक्ति की पूर्णता मात्र को पर्याप्ति कहते हैं और जिनके द्वारा आत्मा जीव संज्ञा को प्राप्त होता है उन्हें प्राण कहते हैं। नवीन शरीर के योग्य जिन नोकर्म वर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है उनको खल और रस भाग रूप परिणमन कराने की शक्ति से युक्त आगत पुद्गल स्कन्धों की प्राप्ति को आहार पर्याप्ति कहते हैं तिल की खली के स्थान उस खलभाग को हड्डी आदि कठिन अवयव रूप से तथा तिल में तेल के समान रस भाग को रस, रूधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयव सहित और मिश्र आदि तीन शरीर रूप से परिणमन करने वाली से उक्त पुद्गल स्कंधों की प्राप्ति को शरीर पर्याप्ति कहते हैं। योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों के ग्रहण करने रूप शक्ति की उत्पत्ति के निमित्त भूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति को इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं। उच्छ्वास और निःश्वांस रूप शक्ति की पूर्णता के निमित्त भूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति को श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं। भाषा वर्गणा के स्कन्धों के निमित्त से चार प्रकार की भाषा रूप से परिणमन करने की शक्ति को निमित्तभूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति को भाषापर्याप्ति कहते हैं। अनुभूत अर्थ के स्मरण रूप शक्ति की नमित्तभूत मनोवर्गणाओं के स्कंधों निष्पन्न पुद्गल प्रचय की प्राप्ति को मनःपर्याप्ति कहते ।