ध्याता
शुभ ध्यान करने वाले साधक को ध्याता कहते हैं। जो उत्तम संहनन वाला निसर्ग से बलशाली और सूर तथा चौदह, दस या नौ पूर्व को धारण करने वाला होता है, वह ध्याता है। मुमुक्षु हो, संसार से विरक्त हो, शांत चित्त हो, मन को वश में करने वाला हो, शरीर और आसन जिसका स्थिर हो, जितेन्द्रिय हो, चित्त संवरयुक्त हो, विषयों में विकल न हो, धीर हो तथा उपसर्ग आने पर न डिगे, ऐसे ध्याता की शास्त्रों में प्रशंसा की गई है। जो ज्ञानी पुरूष धर्म में एकाग्र मन रहता है और इन्द्रियों के विषयों का अनुभव नहीं करता, सदा उनसे विरक्त रहता है, उसी के धर्मध्यान होता है। बज्रवृषभ नाराच संहनन के धारक पूर्व नामक श्रुतज्ञान से संयुक्त और उपशम और क्षपक श्रेणियों के आरोहण में समर्थ ऐसे अतीत महापुरूषों में इस भूमण्डल पर शुक्ल ध्यान को ध्याया है। और ध्यान : चित्त की एकाग्रता का नाम ध्यान है। यह चार प्रकार का है- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसार को बढ़ाने वाले होने से अशुभ हैं। धर्मध्यान व शुक्लध्यान मोक्ष–प्राप्ति में सहायक होने से शुभध्यान हैं । चित्त के विक्षेप का रूक जाना ध्यान है। अथवा उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है । पुत्र शिष्य आदि के लिये, हाथी, घोड़े के लिए भोजन पानी के लिये, खुदी हुई पर्वत की जगह के लिये, शयन–आसन–भक्ति-प्राणों के लिये, मैथुन की इच्छा के लिये, आज्ञा निर्देश प्रमाणिकता – कीर्ति-प्रभावना व गुण विस्तार के लिये इन सभी अभिप्रायों के लिये यदि ध्यान करे तो मन का यह संकल्प अशुभ ध्यान है। जीवों के पाप रूप आशय के वश से और मोह, मिथ्यात्व, कषाय और तत्त्वों के अयथार्थ रूप विभ्रम से उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त है। पुण्य आशय के वश तथा शुद्ध लेश्या के अवलम्बन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप चिन्तवन से हुआ ध्यान प्रशस्त है। रागादिक के संतान के क्षीण होने से अन्तरंग आत्मा के प्रशस्त होने से जो अपने स्वरूप का अवलम्बन है वह शुद्ध ध्यान है। ध्यान के विषय में चार अधिकार हैं ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान- फल। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग के दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यान के बिना आत्मा दिखाई नहीं देती । निश दिन घोर तपश्चरण भले करो, नित्य सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन भले करो, प्रमाद रहित होकर चारित्र भले धारण करो, परन्तु ध्यान के बिना सिद्धि नहीं । ध्यान के लिये नेत्र युगल, दोनों कान, नाशिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालू, दोनों भोहों का मध्यभाग इन दस स्थानों में से किसी एक स्थान को विषयों से रहित करके ध्यान करना चाहिए। –