धर्मध्यान
पंचपरमेष्ठी की भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, तत्व – चिन्तन, रत्नत्रय व संयम आदि में मन को लगाना धर्मध्यान है। धर्मध्यान के चार भेद हैंआज्ञा-विचय, अपाय- विचय, विपाक- विचय और संस्थान- विचय | पाँच अस्तिकाय, छह जीव निकाय, काल द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञा प्राप्त अन्य जितने पदार्थ उनका चिन्तवन करना आज्ञा- विचय धर्मध्यान है। जीवों को जो एक और अनेक भाव में पुण्य-पाप कर्म का फल प्राप्त होता है, उसका उदय, उदीरणा, संक्रमण बंध और मोक्ष का चिन्तवन करना विपाक- विचय धर्मध्यान है। जिनमत को प्राप्त कर कल्याण करने वाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन अथवा जीवों के जो शुभाशुभ भाव होते हैं, उनका चिन्तवन करना अपाय- विचय धर्मध्यान है। तीन लोकों, संस्थान प्रमाण और आयु आदि का चिन्तवन करना संस्थान विचय चौथा धर्मध्यान है। पंच परमेष्ठी की भक्ति और उनके अनुकूल शुभ अनुष्ठान (पूजा, दान, अभ्युत्थान, विनय आदि) बहिरंग धर्मध्यान हैं। धर्मध्यान को धारण करने के लिए कम से कम सम्यग्दृष्टि होना चाहिए। मन्द कषायी मिथ्यादृष्टि जीवों के जो ध्यान होता है उसे शुभ – भावना कहते हैं। उत्कृष्ट धर्मध्यान के शुभाश्रव, संवर, निर्जरा और देवों के सुख ये शुभानुबंधी विपुल फल होते हैं। प्राथमिक जनों को चित्त स्थिर करने के लिये विषयाभिलाषा रूप दुर्ध्यान से परम्परा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते हैं तथा दृढ़तर ध्यान के अभ्यास के द्वारा चित्त स्थिर जो जाने पर निज शुद्ध आत्मरूप ही ध्येय होता है। इस प्रकार सापेक्ष निश्चय – व्यवहार दोनों के द्वारा साध्य – साधक भाव को जानकर ध्येय के विषय में विवाद नहीं करना चाहिए।