मोक्ष
सब कर्मों का आत्यान्तिक क्षय होना ही मोक्ष है समस्त कर्मों से रहित आत्मा की परमविशुद्ध अवस्था का नाम मोक्ष है अपने स्वरूप में अवस्थित होना ही मोक्ष है अथवा जब आत्मा कर्ममल (अष्टकर्म) कलंक (रागद्वेष मोह) और शरीर को अपने से सर्वदा पृथक कर देता है तब उसके जो स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादिगुण रूप और अव्याबाध सुख रूप अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं अथवा जिस प्रकार बन्धनयुक्त प्राणी बन्धन आदि के छूट जाने पर स्वतंत्र होकर यथेच्छ गमन करता हुआ सुखी होता है उसी प्रकार कर्म बन्धन का विछोह हो जाने पर आत्मा स्वाधीन होकर अनन्त ज्ञानदर्शन रूप अनुपम सुख का अनुभव करता है द्रव्य और भाव के भेद से वह मोक्ष दो प्रकार का है- सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना द्रव्यमोक्ष है तथा जिन परिणामों से समस्त कर्म आत्मा से दूर किए जाते हैं इन परिणामों को भावमोक्ष कहते हैं। जो आत्मा मोक्ष अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलतामय सुख का अनुभव करता है वह पुनः संसार में लौटकर नहीं आता। जिस प्रकार बीज के पूर्णतया जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के दग्ध हो जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। आठ समय अधिक छह मास में चतुर्गति जीव राशि में से निकलकर 608 जीव मोक्ष में जाते हैं और उतने ही जीव (उतने ही समय में) नित्य निगोद को छोड़कर चतुर्गति रूप भव को प्राप्त होते हैं। 1. जन्म की अपेक्षा 15 कर्मभूमियों में तथा अपहरण की अपेक्षा मनुष्य क्षेत्र से ही मुक्ति होती है।2. जन्म की अपेक्षा भरत व ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के दुषमा- सुषमा नामक काल में मोक्ष की प्राप्ति होती है संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी के सब समयों से मोक्ष होता है।3. मनुष्य गति और पुरुष वेद से ही मोक्ष सम्भव है। यथाख्यात चारित्र एवं परम्परा से धारण को करने वाली महान आत्माएँ ही मुक्त होती हैं परोपदेश पूर्वक भी एवं परोपदेश के बिना भी स्वशक्ति से मोक्ष होता है। मति व श्रुत दो ज्ञानों से अथवा मति श्रुत अवधि या मनःपर्ययज्ञान सहित तीन व चार ज्ञानों से मोक्ष होता है। मुक्त होने जीवों की उत्कृष्ट से 525 धनुष और जघन्य 3 1 / 2 हाथ अवगाहना जघन्य रूप से एक समय से एक जीव सिद्ध होता है। और उत्कृष्ट से एक समय में 108 जीव मुक्त होते हैं।