व्यवहार से नग्नपने को यथाजात रूप कहते हैं निश्चय से जो आत्मा का स्वरूप है वही यथाजातरूप अर्थात् समस्त परिग्रह से रहित अवस्था है।
जो कथन अनुलोम व प्रतिलोम क्रम के बिना जहाँ कहीं से भी किया जाता है, उसे यथातथानुपूर्वी कहा जाता है। जैसे- हाथी, भैंसा, जलपरिपूर्ण सघन मेघ, कोयल, मयूर का कण्ठ, भ्रमर के समान वर्ण वाले, हरिवंश के प्रदीप, व शिव …