बाह्य में वचन प्रवृत्ति को छोड़कर अंतरंग वचन प्रवृत्ति को भी पूर्णतया छोड़ देना अथवा प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त वचन रचना को छोड़कर निजकार्य को साधना मौन है। जो कुछ मेरे द्वारा यह बाह्य जगत में देखा जा रहा है …
Not a member yet? Register now
Are you a member? Login now