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मोहनीय

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" 1 4 8 अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ए ऐ ओ औ क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह
मं मख मज मट मत मथ मद मध मन मम मर मल मस मह मा मि मी मु मू मृ मे मै मो मौ म्
मोक मोद मोष मोह

मोहनीय

  • Posted by kundkund
  • Date July 12, 2023

आठों कर्मों में मोहनीय ही सर्व प्रधान है, क्योंकि जीव के संसार का यही मूल कारण है। यह दो प्रकार का है−दर्शन मोह व चारित्र मोह। दर्शनमोह सम्यक्त्व को और चारित्रमोह साम्यता रूप स्वाभाविक चारित्र को घातता है। इन दोनों के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि व रागी – द्वेषी हो जाता है। दर्शनमोह के 3 भेद हैं  –  मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोह के दो भेद हैं−कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय। क्रोधादि चार कषाय हैं और हास्यादि 9 अकषाय हैं।

  1. मोहनीय सामान्य निर्देश
    1. मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण।
    2. मोहनीय कर्म के भेद।
    3. मोहनीय के लक्षण संबंधी शंका।
    4. मोहनीय व ज्ञानावरणीय कर्मों में अंतर।
    • दर्शन व चारित्र मोहनीय में कथंचित् जातिभेद।−देखें संक्रमण – 3।
    1. सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता।
    2. [[#1.6 | मोह प्रकृति में दशों करणों की संभावना।−देखें करण – 2। ]]
    3. [[#1.7 | मोह प्रकृतियों की बंध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम ।]]
    4. [[#1.8 | मोहोदय की उपेक्षा की जानी संभव है। – देखें विभाव – 4.2। ]]
    5. [[#1.9 | मोहनीय का उपशमन विधान।−देखें उपशम । ]]
    6. [[#1.10 | मोहनीय का क्षपण विधान।−देखें क्षय । ]]
    7. [[#1.11 | मोह प्रकृतियों के सत्कर्मिकों संबंधी क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम । ]]
  2. दर्शनमोहनीय निर्देश
    1. दर्शनमोह सामान्य का लक्षण।
    2. दर्शनमोहनीय के भेद।
    3. दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण।
    4. तीनों प्रकृतियों में अंतर।
    5. एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?
    • मिथ्यात्व प्रकृति का त्रिधाकरण।−देखें उपशम /2।
    1. मिथ्यात्व प्रकृति में से मिथ्यात्वकरण कैसा ?
    2. सम्यक् प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?
    3. सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?
    • सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की उद्वेलना संबंधी।−देखें संक्रमण – 4।
    • सम्यक्त्व प्रकृति देश घाती कैसे ?–देखें अनुभाग – 4.6.3।
    • मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व में से पहले मिथ्यात्व का क्षय होता है।−देखें क्षय – 2।
    • मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करने वाला जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। – देखें मरण – 3।
    1. दर्शनमोहनीय के बंध योग्य परिणाम।
    • दर्शनमोह के उपशमादि के निमित्त।−देखें सम्यग्दर्शन – III.1.2 ।
  3. चारित्रमोहनीय निर्देश
    1. चारित्रमोहनीय सामान्य का लक्षण।
    2. चारित्रमोहनीय के भेद – प्रभेद।
    • हास्यादि की भाँति करुणा अकरुणा आदि प्रकृतियों का निर्देश क्यों नहीं है ? −देखें करुणा – 2।
    1. कषाय व अकषाय वेदनीय के लक्षण।
    • कषाय व अकषाय वेदनीय में कथंचित् समानता।−देखें संक्रमण – 3।
    • अनंतानुबंधी आदि भेदों संबंधी।−देखें वह वह नाम ।
    • क्रोध आदि प्रकृतियों संबंधी।−देखें कषाय ।
    • हास्य आदि प्रकृतियों संबंधी।−देखें वह वह नाम ।
    1. चारित्रमोह की सामर्थ्य कषायोत्पादन में है स्वरूपाचरण के विच्छेद में नहीं।
    2. कषायवेदनीय के बंधयोग्य परिणाम।
    3. अकषायवेदनीय के बंध योग्य परिणाम।

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पुराणकोष से

आठ कर्मों में चौथा कर्म । इसकी अट्ठाईस प्रकृतियों होती हैं । मूलत: इसके दो भेद हैं― दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इसमें दर्शनमोहनीय की तीन उत्तर प्रकृतियां है― मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं― नोकषाय और कषाय । इसमें हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय हैं । अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय के मूल में चार भेद है । अनंतानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्र का घात करती है । अप्रत्याख्यानावरण हिंसा आदि रूप परिणतियों का एक देश त्याग नहीं होने देती । प्रत्याख्यानावरण से जीव सकल संयमी नहीं हो पाता तथा संज्वलन यथाख्यातचारित्र का उद्भव नहीं होने देनी इसकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थित अंतर्मुहूर्त प्रमाण होती है । हरिवंशपुराण 58.216-221, 231-241, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.157, 160

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