हुण्डावसप्रिणी
असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुण्डावसप्रिणी आती है उसके चिन्ह इस प्रकार हैं:1. इसके सुखमा–दुखमा काल की स्थिति में से कुछ काल शेष रहने पर भी वर्षा आदि होने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। 2. इसी सुखमा–दुखमा काल में कल्पवृक्षों का अन्त एवं कर्मभूमि का प्रारम्भ हो जाता है। 3. इसी काल में प्रथम तीर्थकर एवं प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। 4. चक्रवर्ती की विजय भंग हो जाती है। 5. कुछ जीवों को इस सुषमा दुषमा काल में ही मोक्ष हो जाता है। 6. चक्रवर्ती के द्वारा द्विजों की उत्पत्ति हो जाती है। 7. इसके दुषमा- सुषमा काल में 58 शलाका पुरुष होते हैं। 8. नौवे से सोलह तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म का व्युच्छेद होता है। 9. ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं। 10. सातवें, तेइसवें और चौबीसवें तीर्थंकर के उपसर्ग भी होता है। 11. धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के मिथ्यादेव व गुरू भी दिखने लगते हैं। 12. चाण्डाल, शवर, पुलिन आदि जातियाँ उत्पन्न होती हैं। 13. कल्की व उपकल्की होते हैं। 14. अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि सात ईतियाँ होती हैं। ऐसे अनेक दोष इस हुण्डावसप्रिणी काल में हुआ करते हैं।