स्वाध्याय
अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है अथवा आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना स्वाध्याय है अथवा अंग और अंग बाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा करना स्वाध्याय नाम का तप है अथवा तत्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है। ग्रन्थ का व्याख्यान करना ( वाचना) शास्त्रों के अर्थ को दूसरे से पूछना (पृच्छना), बार-बार शास्त्र का मनन करना ( अनुप्रेक्षा), पढ़े हुए ग्रन्थ का पाठ करना ( आम्नाय ) और त्रेसठ शलाका पुरुषों की कथा पढ़ना-पढ़ाना (धर्मकथा) – यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय देव व गुरू वन्दना मंगल सहित करना चाहिए। वृषभसेन आदि गणधरों के द्वारा जिनकी शब्द रचना की गई हो ऐसे द्रव्य सूत्रों से उनके पढ़ने व मनन करने रूप क्रिया में प्रवृत हुए सब जीवों के प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी रूप से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है। जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल होता है तथा उनके अपने चित्त को स्वाधीन कर लिया है ऐसा चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल चारित्र होता है । प्रवचन के अभ्यास से मेरु के समान निष्कंप, आठ मल रहित, तीन मूढ़ता रहित सम्यग्दर्शन होता है देव, मनुष्य और विद्याधरों के सुख प्राप्त होते हैं तथा आठकर्मों से रहित विशद सिद्ध सुख भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय का प्रारम्भ दिन व रात्रि के पूर्वान्ह अपरान्ह चारों ही बेलाओं में लघु श्रुतभक्ति व आचार्य भक्ति पूर्वक करना चाहिए तथा नियत समय तक स्वाध्याय करके लघु श्रुत भक्ति पूर्वक समापन करना चाहिए। अंग-पूर्व वस्तु प्राभृत रूप सूत्र जो गणधर, श्रुत केवली और अभिन्न दशपूर्वी कथित होता है वे चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना संयमियों तथा आर्यिकाओं को नहीं पढ़ने चाहिए। सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओं का स्वरूप कहने वाला ग्रन्थ, समाधिमरण आदि का वर्णन करने वाला ग्रंथ, पंचसंग्रह ग्रंथ, स्तोत्रग्रन्थ, आहारादि के त्याग का उपदेश करने वाला ग्रन्थ, सामायिक आदि छह आवश्यकों को कहने वाला ग्रन्थ, महापुरुषों के चरित्र का वर्णन करने वाला ग्रन्थ कालशुद्धि आदि न होने पर भी पढ़ना चाहिए।