स्वदार सन्तोष व्रत
अपनी विवाहित स्त्री में ही संतुष्ट रहना और शेष स्त्रियों के प्रति माता, बहिन और पुत्रीवत् निर्मल भाव रखना स्वदार संतोषव्रत कहलाता है। इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत भी कहते हैं। जो पाप के भय से न तो परस्त्री के प्रति गमन करें, और न दूसरे को गमन करावें, वह पर स्त्री त्याग तथा स्वदार संतोष नाम का अणुव्रत है। स्वस्त्री संतोष अथवा परस्त्री से निवृत्ति व किसी से सर्वथा स्त्री के त्याग रूप तीन प्रकार का ब्रह्मचर्य व्रत है। परविवाहकरण, इत्वरिकापरिग्रहीता गमन, इत्वरिका अपरिग्रहीता गमन, अनंगक्रीड़ा और काम तीव्राभिनिवेश ये स्वदार संतोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।