स्तव स्तुति
1. तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन करना स्तव, स्तवन या स्तुति कहलाता है अथवा अतीत, अनागत और वर्तमान काल विषयक पाँच परमेष्ठियों के भेद को न करके अरहन्तों को नमस्कार हों, जिनों को नमस्कार हो इस प्रकार नमस्कार करना स्तव या स्तुति है। मन से चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करना, वचन से श्लोकों में कही हुई तीर्थंकर स्तुति बोलना और ललाट पर हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विंशति स्तवन के तीन भेद हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव स्तवन के भेद से चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन के छह भेद हैं। चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का अनुसरण करने वाले उनके एक हजार आठ नामों को ग्रहण करना नाम स्तवन है तीर्थंकरों के समस्त गुणों को धारण करने वाली जिन प्रतिमाओं के स्वरूप का कीर्तन करना स्थापना स्तवन है। जो समस्त दुखों से रहित है, स्वस्तिक आदि चौंसठ लक्षणों से युक्त है, शुभ संस्थान व शुभ संहनन वाले हैं, सुवर्णदण्ड से युक्त चौंसठ चमरों से सुशोभित हैं और जिनका वर्ण शुभ है ऐसे चौबीस तीर्थंकरों के शरीर के स्वरूप का अनुसरण करते हुए कीर्तन करना द्रव्य स्तवन है तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि कल्याणको के द्वारा पवित्र हुए नगर, वन, पर्वत आदि के वर्णन(कीर्तन) करने को क्षेत्रस्तवन कहते हैं। तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओं से जो महत्ता को प्राप्त हो चुका है ऐसे काल (समय) का वर्णन करने को काल स्तवन कहते हैं तीर्थंकरों के अनन्तज्ञान अनंतदर्शन अनंतवीर्य, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यकत्व, अव्याबाध ओर वीतरागता आदि गुणों का अनुसरण करते हुऐ कीर्तन करना भाव स्तवन है। 2. समस्त अंग ज्ञान सम्बन्धी अर्थ को विस्तार या संक्षेप से विषय करने वाले शास्त्र को स्तव कहते हैं अथवा बारह अंगों में से एक अंग के उपसंहार का नाम स्तव या स्तुति है यह अंगबाह्य श्रुतज्ञान का एक भेद है ।