समयसार
आचार्य.कुंदकुंद (ई.127-179) कृत महान् आध्यात्मिक कृति। इसमें 415 प्राकृत गाथाएँ निबद्ध हैं। इस पर निम्न टीकाएँ उपलब्ध हैं‒1. आचार्य अमृतचंद्र (ई.905-955) कृत आत्मख्याति। 2. आचार्य जयसेन (ई.श.12-13) कृत तात्पर्यवृत्ति। 3. आचार्य प्रभाचंद नं.5 (ई.950-1020) कृत। 4. पं.जयचंद छाबड़ा (ई.1807) कृत भाषा वचनिका। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा./2/113)।
समयसार
नयचक्र बृहद्/355सामण्णं परिणामी जीवसहावं च परमसब्भावं। ज्झेयं गुब्भं परमं तहेव तच्चं समयसारं।355।=सामान्य, परिणामी, जीवस्वभाव, परमस्वभाव, ध्येय, गुह्य, परम तथा तत्त्व ये सब समयसार के अपर नाम हैं।355।
नयचक्र बृहद्/360-362कारणकज्जसहावं समयं काऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स।360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीव सब्भावो। खय पुणु सहावझाणे तहया तं कारणं झेयं।361। किरियातीदो सत्थो अणंतणाणाइसंजुतो अप्पा। तह मज्झत्थो सुद्धो कज्जसहावो हवे समओ।362।=कारण व कार्य समयसार को जानकर ध्यान करना चाहिए। कार्य समयसार शुद्धस्वरूप है तथा कारण समयसार उसका साधन है।360। शुद्ध तथा कर्मों के क्षय से कार्य समयसार होता है। कारणसमयसार जीव का स्वभाव है, स्वभाव के ध्यान करने से कर्मों का क्षय होता है। इसलिए कारणसमयसार का ध्यान करना चाहिए।361। क्रियातीत, प्रशस्त, अनंत ज्ञानादि से संयुक्त मध्यस्थ तथा शुद्ध आत्मा, कार्यसमयसार है। वही स्वभाव तथा समय है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/95/124/16शुद्धात्मरूपपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशे सति शुद्धात्मोपलंभव्यक्तिरूपकार्यसमयसारस्योत्पाद:।=शुद्धात्मा रूप परिच्छित्ति, उस ही की निश्चल अनुभूति रूप जो कार्य समयसार पर्याय, उसका विनाश होने पर, शुद्धात्मोपलब्धि की व्यक्तिरूप कार्यसमयसार का उत्पाद है।
द्रव्यसंग्रह टीका/22/64/5केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपेण कार्यसमयसारस्योत्पादो निर्विकल्पसमाधिरूपकारणसमयसारस्य विनाश:…। =केवलज्ञानादि की प्रगटता रूप कार्यसमयसार का उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यान रूप जो कारणसमयसार है उसका विनाश होता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/37/154/9निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपो…आत्मन: परिणाम: …चतुष्टयकर्मणो य: क्षयहेतुरिति।=निश्चय रत्नत्रयरूप कारणसमयसाररूप आत्म परिणाम…चारघातियाकर्मों के नाश का कारण है।
3. कारण-कार्य समयसार के उदाहरण
नयचक्र बृहद्/368 चूलिका‒सकलसमयसारार्थं परिगृह्य पराश्रितोपादेयवाच्यवाचकरूपं पंचपदाश्रितं श्रुतं कारणसमयसार:। भावनमस्काररूपं कार्यसमयसार:। तदाधारेण चतुर्विधधर्मध्यानं कारणसमयसार:। तदनंतरं प्रथमशुक्लध्यानं द्विचत्वारिंशभेदरूपं पराश्रितं कार्यसमयसार:। तदाश्रितभेदज्ञानं कारणसमयसार:। तदाधारीभूतं परान्मुखाकारस्वसंवेदनभेदरूपं कार्यसमयसार:। …स्वाश्रितस्वरूपनिरूपकं भावनिराकाररूपं सम्यग्द्रव्यश्रुतं कारणसमयसार:। तदेकदेशसमर्थो भावश्रुतं कार्यसमयसार:। तत: स्वाश्रितोपादेयभेदरत्नत्रयं कारणसमयसार:। तेषामेकत्वावस्था कार्यसमयसार: …तत: स्वाश्रितधर्मध्यानं कारणसमयसार:। तत:प्रथमशुक्लध्यानं कार्यसमयसार:। ततो द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानकं क्षीणकषायस्य द्विचरमसमयपर्यंतं कार्यपरंपरा कारणसमयसार:। एवमप्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यतं समयं समयं प्रति कारणकार्यरूपं ज्ञातव्यम् ।=आगम के आधार पर सकल समयसार के अर्थ को ग्रहण करके, पराश्रितरूप से उपादेयभूत तथा वाच्यवाचक रूप से भेद को प्राप्त पंचपरमेष्ठी के वाचक शब्दों के आश्रित जो श्रुतज्ञान होता है वह कारणसमयसार है और भाव नमस्कार कार्यसमयसार है। उसके आधार से होने वाला चार प्रकार का धर्मध्यान कारणसमयसार है, तथा तदनंतर उत्पन्न होने वाला बयालीस भेदरूप (बयालीस व्यंजनों में संक्रांति करने वाला), पराश्रित प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमयसार है। उसके आश्रय से होने वाला भेदज्ञान कारण समयसार है। उसके आश्रय से होने वाला परोन्मुखाकार स्वसंवेदन रूप भेदज्ञान कार्य समयसार है। स्वाश्रितस्वरूप का निरूपक, निराकार तथा भावात्मक, सम्यक् द्रव्यश्रुत कारणसमयसार है, तथा उससे उत्पन्न एकदेशसमर्थ भावश्रुत कार्यसमयसार है। उसके आगे स्वाश्रितरूप से उपादेय भेदरत्नत्रय कारणसमयसार है और उस रत्नत्रय में एकात्मक अवस्था कार्यसमयसार है। उसके आगे स्वाश्रित धर्मध्यान कारणसमयसार है और उससे होने वाला भावात्मक प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमय है। उसके आगे द्वितीय शुक्लध्यान संज्ञा को प्राप्त जो क्षीणकषाय गुणस्थान का द्विचरम समय, तहाँ पर्यंत कार्य-परंपरागत कारणसमयसार है। इस प्रकार अप्रमत्त गुणस्थान को आदि लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत समय समय प्रति कारणकार्य रूप जानना चाहिए। (अर्थात् पूर्वपूर्व के भाव कारण समयसार हैं और उत्तर उत्तर के भाव कार्यसमयसार।)
आचार्य.कुंदकुंद (ई.127-179) कृत महान् आध्यात्मिक कृति। इसमें 415 प्राकृत गाथाएँ निबद्ध हैं। इस पर निम्न टीकाएँ उपलब्ध हैं‒1. आचार्य अमृतचंद्र (ई.905-955) कृत आत्मख्याति। 2. आचार्य जयसेन (ई.श.12-13) कृत तात्पर्यवृत्ति। 3. आचार्य प्रभाचंद नं.5 (ई.950-1020) कृत। 4. पं.जयचंद छाबड़ा (ई.1807) कृत भाषा वचनिका। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा./2/113)।
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