शय्या परीषह जय
कठोर भूमि पर शयन करते समय उत्पन्न बाधाओं से विचलित नहीं होना और बाधा को समतापूर्वक सहन करना शय्या परीषह जय कहलाता है। जो स्वाध्याय ध्यान और मार्गश्रम के कारण थककर कठोर, विषम और प्रचुर मात्रा में कंकर और खप्परों के टुकड़ों से व्याप्त अति शीत तथा अति-उष्ण भूमि प्रदेशों में एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्वभाग से या दण्डायित आदि रूप से शयन करता है, करवट लेने से प्राणियों को होने वाली बाधा का निवारण करने के लिए जो गिरे हुए लकड़ी के कुन्दे के समान करवट नहीं बदलता जिसका चित्त ज्ञान भावना में लगा हुआ है, व्यन्तरादि के द्वारा किए गए अनेक प्रकार के उपसर्गों से भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियत कालीय तत्कृत बहरा हो सहन करता है, उस मुनि के यह शय्या परीषह जय कहा गया है ।