विवेक
संसक्त हुए अर्थात् परस्पर में मिले-जुले अन्न – पान आदि का अथवा उपकरण आदि का विभाग करना विवेक नामक प्रायश्चित है अथवा गण, गच्छ, द्रव्य व क्षेत्र आदि से अलग करना विवेक नाम का प्रायश्चित है। आशय यह है कि किसी मुनि का हृदय किसी द्रव्य क्षेत्र, अन्न-पान अथवा उपकरण में आसक्त हो तथा किसी दोष को दूर करने के लिए गुरू उन मुनि को वह पदार्थ प्राप्त न होने दें उस पदार्थ को उन मुनि से अलग कर दें तो वह विवेक नाम का प्रायश्चित कहलाता है अथवा कोई मुनि अपनी शक्ति के अनुरूप प्रयत्नपूर्वक जीवों की बाधा दूर करते हुए भी किसी कारण से अप्रासुक पदार्थ का ग्रहण कर लें अथवा जिसका त्याग कर चुके हैं ऐसे प्रासुक पदार्थ को भी भूलकर ग्रहण कर लें और फिर स्मरण हो आने पर उन सबका त्याग कर दें तो वह भी विवेक नाम का प्रायश्चित है अथवा जिस-जिस पदार्थ के अवलम्बन से अशुभ परिणाम होते हैं उनको त्यागना अथवा दूर होना यह विवेक है। इन्द्रिय विवेक, कषाय विवेक, भक्तपान विवेक, उपाधि विवेक, देह विवेक ऐसे विवेक के पाँच भेद हैं अथवा शरीर विवेक, वसतिसंस्तर विवेक, उपकरण विवेक, भक्तपान विवेक और वैयावृत्यकरण विवेक ऐसे पाँच भेद कहे गए हैं।