मौन
बाह्य में वचन प्रवृत्ति को छोड़कर अंतरंग वचन प्रवृत्ति को भी पूर्णतया छोड़ देना अथवा प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त वचन रचना को छोड़कर निजकार्य को साधना मौन है। जो कुछ मेरे द्वारा यह बाह्य जगत में देखा जा रहा है वह तो जड़ है कुछ जानता नहीं और मैं जो यह ज्ञायक हूँ वह किसी के भी द्वारा देखा नहीं जाता, तब मैं किसके साथ बोलूँ ऐसा विचार कर वचन व्यापार छोड़ देना ही मौन है। आवश्यक कर्मों में, मल मूत्र क्षेपण करने में, दूसरे के द्वारा पाप कार्य की संभावना होने में, स्नान, मैथुन, आचमन आदि करने में श्रावक को मौन धारण करना चाहिए तथा साधु को कृतिकर्म करते समय अथवा आहारचर्या करते समय मौन धारण करना चाहिए । अथवा जो भाषा समिति का क्रम नहीं जानता वह मौन धारण करे। –