मनोगुप्ति
राग-द्वेष से मन परावृत्त होना, यह मनो- गुप्ति के लक्षण हैं। राग-द्वेष से अवलम्बित सकल संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन करता है और समता भाव में स्थिर करता है तथा सिद्धांत के सूत्र की रचना में निरंतर प्रेरणा रूप करता है, उस बुद्धिमान मुनि के सम्पूर्ण मनोगुप्ति होती है। सकल मोह, राग-द्वेष के अभाव के कारण अखण्ड, अद्वैत, परम चिद्रूप में सम्यक रूप से अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है। कलुषता, मोह, राग-द्वेष आदि अशुभ भावों के परिहार को व्यवहार से मनोगुप्ति कहा है।