मंगल
मंगल का अर्थ शुभ, प्रशस्त, पुण्यरूप, कल्याणकारी व पवित्र है, पापरूप मल को गलाता अर्थात् नष्ट करता है, वह मंगल है अथवा जो मंग को अर्थात् सुख या पुण्य को लाता है, वह मंगल है। कार्य की निर्विघ्न समाप्ति इच्छित फल की प्राप्ति, शिष्टाचार का पालन और पुण्य-वर्धन के लिए मंगल किया जाता है। यह मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस प्रकार छह भेदरूप कहा गया है। अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु इन नामों को नाम मंगल कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान के जो कृत्रिम – अकृत्रिम प्रतिबिम्ब हैं सब स्थापना मंगल है। आचार्य, उपाध्याय व साधु के शरीर द्रव्य मंगल हैं। दीक्षा का क्षेत्र, केवलज्ञान उत्पत्ति का क्षेत्र आदि रूप क्षेत्र मंगल है जिस काल में जीव केवल ज्ञान आदि रूप मंगल पर्याय को प्राप्त करता है उसको तथा दीक्षा काल, केवल ज्ञान के उत्पत्ति का काल, निर्वाणकाल ये सब काल मंगल हैं वर्तमान में मंगल रूप पर्यायों से परिणत जो शुद्ध जीव द्रव्य है वह भाव मंगल है। शास्त्र के आदि, मध्य व अन्त में विध्न निवारण के लिए जो जिनेन्द्र भगवान का गुण स्तवन किया जाता है, वह मुख्य मंगल है और पीली सरसों, पूर्ण कलश वन्दनमाला, छत्र, श्वतेवर्ण, दप्रण, उत्तम जाति का घोड़ा आदि ये अमुख्य मंगल हैं। मुख्य मंगल दो प्रकार का हैनिबद्ध मंगल और अनिबद्ध मंगल । जो ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकार के द्वारा आराध्य देवता को नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है अर्थात् श्लोक आदि रूप में रचकर लिख दिया जाता है उसे निबद्ध मंगल कहते हैं और जो ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा आराध्य देवता को नमस्कार मात्र किया जाता है उसे लिपिबद्ध नही किया जाता, वह अनिबद्ध मंगल है।