बन्ध
1. किसी को अपने इष्ट स्थान में जाने से रोकने के कारण को बन्ध कहते हैं । 2. जिनसे कर्म बंधे वह कर्मों का बंधना ही बन्ध है। यह बन्ध दो प्रकार का है – द्रव्य बन्ध और भाव बन्ध । आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना द्रव्य बन्ध है। कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को निरन्तर ग्रहण करता है। इसे ही द्रव्य बन्ध कहते हैं। जिस प्रकार बर्तन में डाले गए विविध रस वाले बीज, फूल और फलों का मदिरा रूप परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मा में स्थित हुए पुद्गलों का भी योग और कषाय के निमित्त से कर्म रूप से परिणमन होता है यही द्रव्य बंध है। क्रोधादि परिणाम भाव बन्ध है या जिस चेतन परिणाम से कर्म बंधता है वह भाव बन्ध है कर्म का बन्ध चार रूपों में होता है- प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग । यह जीव प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के द्वारा तथा स्थिति व अनुभाग बन्ध कषाय के द्वारा करता है।