प्रतिमा
1. अर्हन्त आदि की पाषाण, काष्ठ, रत्न आदि में उकेरी गई वीतराग मुद्रा युक्त मूर्ति को प्रतिमा कहते हैं। प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होनी चाहिए। 2. श्रावक के व्रतादि गुणों में होने वाले उत्तरोत्तर विकास के ग्यारह स्थान हैं। यही श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कहलाती हैं। आगे की प्रतिमा के साथ पूर्व की प्रतिमा में ग्रहण किए गए व्रत-नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। (दर्शन प्रतिमा, व्रत- प्रतिमा, सामयिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्त-त्याग प्रतिमा, रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भ – त्याग प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा और उद्विष्ट त्याग प्रतिमा – ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं इनमें से एक-दो या समस्त प्रतिमाओं का पालन करने वाला ग्रहस्थ नैष्ठिक-श्रावक कहलाता है। 3. सल्लेखनागत साधु की बारह प्रतिमाएँ कही गई हैं। मुनि स्वयं ठहरे हुए देश में उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार का व्रत ग्रहण करता है अर्थात् उत्कृष्ट और दुर्लभ इस प्रकार का आहार यदि एक महीने के भीतर-भीतर मिल गया तो मैं आहार ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके इस महीने के अन्तिम दिन में वह प्रतिमा योग धारण करता है यह एक भिक्षु प्रतिमा हुई । पूर्वान्त आहार से सौगुना उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार का व्रत क्रम से दो, तीन, चार, पाँच, छ: और सात माह तक के लिए ग्रहण करता है। प्रत्येक अवधि के अन्तिम दिन में प्रतिमा योग धारण करता है। ये कुल मिलकर सात भिक्षु प्रतिमाएँ हुईं। पुनः सात-सात दिनों में पूर्व आहार की अपेक्षा से सौगुना उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार लेने की प्रतिज्ञा करता है आहार प्राप्त होने पर तीन, दो ओर एक ग्रास लेता है, ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं। तदनन्तर रात्रि और दिन भर प्रतिमा योग से खड़े रहकर पुनः रात्रि प्रतिमा योग धारण करता है। ये दो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं प्रथम अवधि और मनःपर्यय ज्ञान इसकी प्राप्ति होती है। अनन्तर सूर्योदय होने पर वह क्षपक केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार बारह भिक्षु प्रतिमाएँ होती हैं ।