प्रतिज्ञांतर
वादी द्वारा प्रतिज्ञात हो चुके अर्थ का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करने पर वादी उस दूषण का उद्धार करने की इच्छा से धर्म का यानि धर्मांतर का विशिष्ट कल्प करके उस प्रतिज्ञान अर्थ का अन्य विशेषण से विशिष्टपने करके कथन कर देता है, यह प्रतिज्ञांतर है। जैसे शब्द अनित्य है, एकेन्द्रिय होने से घट के समान, इस प्रकार वादी के कहने पर प्रतिवादी द्वारा अनित्यपने का निषेध किया गया । ऐसी दशा में वादी कहता है कि जिस प्रकार घट असर्वगत है उसी प्रकार शब्द भी अव्यापक हो जाओ ओर उस एकेन्द्रियिक सामान्य के समान यह शब्द भी नित्य हो जाओ । इस प्रकार धर्म की विकल्पना करने से एकेन्द्रिकत्व हेतु का सामान्य नाम को धारने वाली जाति करके व्यभिचार हो जाने पर भी वादी द्वारा अपनी पूर्व की प्रतिज्ञा की प्रसिद्धि के लिए शब्द के सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाओ इस प्रकार वादी की दूसरी प्रतिज्ञा तो उस अपने प्राकृत पक्ष को साधने में समर्थ नहीं है। इस प्रकार वादी का निग्रह ही माना जाता है। किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नहीं है ।