पात्र
जो मोक्ष के कारणभूत गुणों से संयुक्त होता है वह पात्र कहलाता है उत्तम, मध्यम जघन्य के भेद से पात्र तीन प्रकार के होते हैं जो सम्यकत्व गुण सहित महाव्रती मुनि है उन्हें उत्तम पात्र कहा गया है, जो सम्यग्दृष्टि देशव्रती श्रावक है उन्हें मध्यम पात्र कहा है तथा व्रत सहित सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा है। उत्तम परिणामों को धारण करने वाले, बिना किसी इच्छा के ध्यान करने वाले और अध्ययन करने वाले मुनिराज उत्तम पात्र कहलाते हैं। उपवासों • शरीर को कृश करने वाले, परिग्रह से रहित, क्रोध से विहीन, परन्तु मन में मिथ्यात्व भाव धारण करने वाले जीव को कुपात्र जानना चाहिए । अर्थात् जो व्रत, तप, शील से सम्पन्न हैं किन्तु सम्यग्दर्शन रहित हैं, वे कुपात्र हैं। सम्यक् शील और व्रत से रहित जीव अपात्र हैं। उत्तम पात्र के लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दान की अनुमोदना से जीव जिस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं, उसमें जीवन पर्यंत निरोग रहकर सुख से बढ़ते रहते हैं। कुपात्र दान के प्रभाव से मनुष्य भोग भूमि में तिर्यंच होते हैं अथवा कुमानुष कुलों में उत्पन्न होकर अन्तर्दीपों का उपभोग करते हैं। यहाँ आर्यखण्ड में जो दासी – दास म्लेच्छ कुत्ता आदि भोगवन्त जीव हैं, तिनको जो भोगें जो प्रकटपने कुपात्र दान तैं हैं। ऐसा जानना अपात्र को दिया गया दान फल रहित जानना चाहिए अथवा जिन्होंने परमार्थ को नही जाना और विषय कषाय में अधिक हैं, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार, दान कुदेव रूप में अथवा कुमानुष रूप में फलता है। मिथ्यादृष्टि को दिया गया दान दाता को मिथ्यात्व का बढ़ाने वाला है। कुपात्र और अपात्र के लिए केवल पात्रबुद्धि से दान देना निषिद्ध करुणा बुद्धि से दान देना निषिद्ध नहीं है। गृहस्थ अपने कमाये हुये धन के चार-चार भाग करे, उसमें से एक भाग जमा करके रखे, दूसरे भाग से बर्तन वस्त्र आदि घर की चीजें खरीदे, तीसरे भाग से धर्म कार्य करे और अपने भोगोपभोग में खर्च करे और चौथे भाग से अपने कुटुम्ब का पालन करे अथवा अपने कमाये हुए धन का आधा या कुछ अधिक धर्म कार्य में खर्च करे और बचे हुए द्रव्य से कुटुम्ब आदि का पालन करे।