परोपकार
अवसर पाने पर जो उपकार किया जाता है, वह देखने में छोटा भले ही हो पर जगत में सबसे भारी है। यदि परोपकार करने के फलस्वरूप सर्वनाश उपस्थित हो तो दासत्व में फँसने के लिए आत्मा विक्रय करके भी उसको सम्पादन करना उचित है। मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखों को दूर करने के लिए अधिक प्रचलन करते हैं, किन्तु दूसरों के दुःखों को देखकर अधिक दुःखी होते हैं, इसलिए वे किसी भी प्रकार की अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढ़ता के साथ सदा तत्पर रहते हैं। जो पुरुष आत्महित करने के लिए कटिबद्ध होकर आत्महित के साथ कटु वचन सहकर भी परहित साधते हैं, वे जगत में अत्यन्त दुर्लभ समझने चाहिए । धर्म के आदेश और उपदेश द्वारा ही दूसरे जीवों का अनुग्रह करना चाहिए, किन्तु अपने व्रतों को छोड़कर दूसरे जीवों की रक्षा करने में तत्पर नहीं होना चाहिए। वह वात्सल्य अंग में स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उसे अपनी आत्मा का सम्बन्ध रखने वाला वात्सल्य प्रधान है तथा सम्पूर्ण पर आत्माओं से सम्बन्ध रखने वाला जो वात्सल्य है, वह गौण है । अपना हित करना चाहिए, शक्य हो तो पर का भी हित करना चाहिए परन्तु आत्महित और परहित इन दोनों में से उत्तम प्रकार से आत्महित करना चाहिए ।