परिग्रह
मूर्छा अर्थात् ममत्व भाव परिग्रह है अथवा यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकार का ममत्व होना परिग्रह है। परिग्रह दो प्रकार का होता हैअंतरंग और बाह्य । अंतरंग परिग्रह रागादि रूप है जो चौदह प्रकार का है- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद । बाह्य वस्तुओं के ग्रहण और संग्रह करने रूप बाह्य परिग्रह है जो दस प्रकार का है— क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, स्वर्ण, धन-धान्य, दासी – दास, कुप्य (वस्त्र) – भांड (वर्तन) अथवा क्षेत्र – वास्तु, धन-धान्य, द्विपद – चतुष्पद, यान कुप्य, भांड और शय्यासन ये दस प्रकार का बाह्य परिग्रह है। बाह्य परिग्रह का त्याग अन्तरंग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है अन्तरंग मूर्च्छा एवं रागादि परिणामों के अनुसार ही परिग्रह होता है। जिसके अन्तरंग मूर्च्छा नष्ट हो जाती है उसके बाह्य परिग्रह का ग्रहण भी नहीं होता।