धर्मानुकम्पा
जिन्होंने असंयम का त्याग किया है, मान–अपमान, सुख-दुख, लाभ-अलाभ, तृण- स्वर्ण, इत्यादि में जिनकी बुद्धि राग-देष से रहित हो गई है, इन्द्रिय और मन को जिन्होंने अपने वश में किया है। माता की भाँति युक्ति का जिन्होंने आश्रय लिया है। उग्र कषाय-विषयों को जिन्होंने छोड़ दिया है, दिव्य भोगों को दोष युक्त देखकर जो वैराग्य युक्त हो गये हैं। संसार समुद्र की भीति से रात में भी अल्प निद्रा लेने वाले हैं। जिन्होंने संपूर्ण परिग्रहों को छोड़कर निःसंगता धारण की है, जो क्षमादि दश प्रकार के धर्मों में इतने तत्पर रहते हैं कि मानों स्वयं क्षमादि दश धर्म स्परूप ही बने हों। ऐसे संयमी मुनियों के ऊपर दया करना, उसको धर्मानुकम्पा कहते हैं। यह अंतःकरण में जब उत्पन्न होती है, तब विवेकी गृहस्थ यतियों को योग्य अन्न, जल, निवास, औषधादिक पदार्थ देता है। अपनी शक्ति को न छिपाकर वह मुनि के उपसर्ग को दूर करता है। हे प्रभु आज्ञा दीजिये, ऐसी प्रार्थना कर सेवा करता है। यदि कोई मुनि मार्ग भ्रष्ट होकर दिग्मूढ़ हो गये हों तो उनको मार्ग दिखाता है। मुनियों का संयोग प्राप्त होने से हम धन्य हैं, ऐसा मानकर मन आनंदित होता है। सभा में उनके गुणों का कीर्तन करता है। मन में मुनियों को धर्मपिता व गुरू समझता है, उनके गुणों का चिन्तन सदा मन में करता है। ऐसा महात्माओं का फिर कब संयोग होगा, ऐसा विचार करता है। उनका सहवास सदा हो, होने की इच्छा करता है। दूसरों के द्वारा उनके गुणों का वर्णन सुनकर संतुष्ट होता है। इस प्रकार धर्मानुकम्पा करने वाला जीव साधु के गुणों को अनुमोदन देने वाला और उनके गुणों का अनुकरण करने वाला होता है।