देव गति
जो दिव्य – भाव युक्त अणिमा आदि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है वे देव कहे गए हैं अथवा देव गति नामकर्म के उदय से अनेक प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं। देव चार निकाय वाले हैं अर्थात् देवों के चार समूह हैं- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक। इन चारों निकाय के देवों में इन्द्र सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक ऐसे दस-दस भेद होते हैं। व्यन्तर और ज्योतिष देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल ऐसे दो भेद नहीं पाए जाते। देवों में अविरत सम्यग्दृष्टि देव जिनपूजा को कर्मों के क्षय करने में अद्वितीय कारण समझकर नित्य ही महान अनन्तगुणी विशुद्धि पूर्वक उसे करते हैं। मिथ्यादृष्टि देव भी जिन प्रतिमाओं को कुल देवता मानकर नित्य नियम से भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र पूजन करते हैं। देवों के शरीर में हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा और मांसादिक नहीं होता। इनका शरीर निगोदिया जीवों से रहित होता है। कर्म के प्रभाव से शरीर में रोग आदि की उपस्थिति नहीं होती। देवों में दिव्य अमृतमय, अनुपम, तुष्टि और पुष्टि करना मानसिक आहार होता है, उनके केवलाहार नहीं होता। गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर (विक्रिया से निर्मित) जाते हैं उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्म स्थान में रहते हैं। इतना अवश्य है कि सौधर्म और ईशान स्वर्ग में उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्प के देवों के पास में जाते हैं। देव अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र प्रमाण विक्रिया करते हैं। स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति (कान्ति), लेश्याविशुद्धि इन्द्रिय विषय और अवधिज्ञान का विषय ऊपर के देवों में अधिक है गति (गमनागमन) शरीर, परिग्रह और अभिमान ऊपर-ऊपर के देवों में कम होता जाता है। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष और सौधर्म, ऐशान स्वर्ग के देव शरीर से विषयसुख भोगने वाले होते हैं। शेष कल्पवासी देव स्पर्श, रूप, शब्द और मन से विषय सुख भोगने वाले होते हैं। कल्पातीत देव विषयसुख का सेवन नहीं करते।मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्गमिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि में चार गुणस्थान देवों में पाये जाते हैं। नव अनुदिश में और पाँच अनुत्तर विमानों में रहने वाले सभी देव असंयत सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। सबसे अधिक सम्यग्दृष्टि की संख्या देवगति में ही होती है ।