त्याग धर्म
1. निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति करना त्याग है। त्याग दो प्रकार का है- बाह्य उपाधि का त्याग और आभ्यन्तर उपाधि का त्याग । आत्मा से भिन्न ऐसे वास्तु, धन, धान्य आदि बाह्य उपाधि हैं इन को त्याग करना बाह्य उपाधि त्याग है और क्रोधादिरूप भाव अभ्यन्तर उपाधि है सूक्ष्म त्याग अभ्यन्तर उपाधि त्याग है तथा नियतिकाल तक या जीवनपर्यन्त के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना भी अभ्यन्तर उपाधि त्याग कहलाता है । 2. पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार आदि देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दुख छूटता है अतः पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञान दान तो अनेक भवों के दुखों से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान यथाविधि दिए गए त्याग कहलाते हैं, अथवा मुनियों के योग्य ज्ञान आदि का दान करना त्याग कहलाता है। व्युत्सर्ग तप में नियत काल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथा शक्ति त्याग किया जाता है यही दोनों में अन्तर है। अथवा त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निर्दोष आहार आदि का नियत समय तक त्याग करने रूप है। शौच धर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृति की जाती है पर त्याग धर्म में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है अथवा त्याग का अर्थ स्वयोग्यदान देना है यही दोनों में अन्तर है।